Sunday 2 June 2013

Tulsi Sahib Hathras, Hathras India




Tulsi Sahib Hathras, India
Hathras, India


संत मिलन को जाइए, तजि माया अभिमान ।
ज्यों ज्यों पग आगे बढ़ें, त्यों त्यों यज्ञ समान ।।


परम पूज्य प्रातः स्मरणीय, नित्यावतार महात्मा श्री १००८ तुलसी साहेब जिनकी पुण्य समाधि हाथरस में है, दक्षिणी ब्राह्मण थे और अपने पिता महाराजाधिराज के युवराज थे । उनका नाम श्यामराव रखा गया था । वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण और राजापुर के निवासी थे । "राजापुर जमुना के तीरा जहाँ तुलसी का भया सरीरा ।" इससे यह जान पड़ता है कि वे गोस्वामी श्री तुलसीदास जी के अवतार थे और जो कार्य उस जीवन में शेष रह गया था उसे ही पूरा करने के लिए धराधाम पर अवतार लेना पड़ा ।


 तुलसी साहेब ने घट-रामायण की रचना की । जैनी, मुसलमान, कबीर पंथी और दूसरे मत-मतान्तर वालों से जो उनका सत्संग हुआ उसका वर्णन तथा संसार को सत्मार्ग दिखाने के हेतु यह ग्रन्थ निर्मित हुआ । कुछ प्रेमियों ने तुलसी साहेब के आदेश-उपदेश लेकर नवीन मत भी प्रचलित किये हैं और वे आज भी चल रहें हैं ।


 तात्पर्य यह है कि संत-जन सब कुछ कर सकते हैं । संत गुड़गान करने से और उनके बताये हुए मार्ग पर चलने से दोनों हाथों में लड्डू हैं । सांसारिक-दुःख दूर हों और परलोक भी सुधारा जा सके । कबीर, दादू, नानक सभी ने सतगुरु की महिमा का वर्णन किया है । वेद शास्त्रों में भी गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और शिव से भी अधिक महिमावान कहा गया है । शास्त्रवाणी या फिर संतवाणी दो ही उध्हार कर सकती हैं । शास्त्रवाणी इस लोक के लिए और संतवाणी परलोक के लिए । कलिकाल में शास्त्रवाणी सब को प्राप्त नहीं है और बोधगम्य भारी है परन्तु संतवाणी का सहारा सभी ले सकते हैं ।


 तुलसी साहेब ने 'रतन सागर' में लिखा है कि महादेव जी भी उस भूमि की वंदना करते हैं, जहाँ पर संत-जन निवास करते हैं । गुरु की महिमा अगम है और अपार है । स्वयं भगवान् श्री राम ने लंका विजय के पश्चात अपने गुरुवर श्री वशिष्ठ जी का परिचय देते हुए कहा - "गुरु वशिष्ठ कुल पूज्य हमारे । जिनकी कृपा दनुज जन मारे ।।" जिस पर गुरु अथवा संत की कृपा हो, वह सर्वत्र ही विजयी और सफल होता है ।


 यह मानव शरीर बड़े भाग्य से मिलता है क्योंकि "जीव चराचर जांचत ये ही" - इसे सभी मांगते हैं । इसी शरीर में आकर हम आवागमन से चौरासी के बंधन से छूट सकते हैं ।


 तुसली साहेब ने जन उध्हार के लिए मार्ग बताया । घट-रामायण, रतन सागर, पदम् सागर, शब्दावली और कुछ रामायण की टीका की । जेठ सुदी २ संवत १९०० विक्रमी को अपनी इहलीला संवरण की । हाथरस किला दरवाजा में उनकी समाधि है, जहाँ आज भी देश-विदेश से प्रेमी, सत्संगी, सज्जन पधारते हैं और विशुध ह्रदय से प्रार्थना कर मनवांछित फल पाते हैं ।


जा घर संत न आवहीं, गुरु की सेवा नाहिं ।
 सो घर मरघट सार है, भूत बसें तेहि माहिं ।।


 इसलिए संत सेवा, संत वाणी, सत्संग, संत मत, संत-उपदेश और सत्मार्ग को ग्रहण करना उचित और उपयुक्त है ।

 For More Visit : www.tulsisahib.org